400 पुलिसवाले, हजारों गोलियां और सामने हाथों में राइफल थामे हुए बस 1 डकैत... 52 घंटे तक चले एनकाउंटर का किस्सा
खपरैल वाले छोटे-छोटे कच्चे मकानों के बीच में हल्के उजले रंग का दोमंजिला मकान। सायरन बजाती हुईं पुलिस की गाड़ियां धड़धड़ाते हुए गांव में दाखिल होती हैं। पुलिस के जवानों के असलहों का लक्ष्य यही मकान था और उनकी आंखें छरहरे बदन वाले एक शख्स को तलाश रही थीं। करीब 400 पुलिसवाले, हजारों गोलियां और सामने घर में छिपा बस एक शख्स जिसने 52 घंटे तक पूरे चक्रव्यूह को अपनी राइफल की नोंक पर थामे रखा। नाम था- घनश्याम केवट।
यह बात आज की तारीख से 13 साल पहले की है। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के पिछड़े इलाके का एक छोटा सा गांव- जमौली। खपरैल वाले छोटे-छोटे कच्चे मकानों के बीच में हल्के उजले रंग का दोमंजिला मकान। सायरन बजाती हुईं पुलिस की गाड़ियां धड़धड़ाते हुए गांव में दाखिल होती हैं। पुलिस के जवानों के असलहों का लक्ष्य यही मकान था और उनकी आंखें छरहरे बदन वाले एक शख्स को तलाश रही थीं। लेकिन उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि अगले ढाई दिनों तक वे किस मंजर का गवाह बनने जा रहे हैं। टॉप लेवल के अधिकारियों के साथ करीब 400 पुलिसवाले, हजारों गोलियां और सामने घर में छिपा बस एक शख्स जिसने 52 घंटे तक पूरे चक्रव्यूह को अपनी राइफल की नोंक पर थामे रखा। नाम था- घनश्याम केवट।
दस्यु सरगना घनश्याम केवट ने बीहड़ में खौफ की दास्तान तो लिखी ही। साथ ही इतिहास के पन्नों में कभी नहीं भूलने वाली उस मुठभेड़ को दर्ज कर दिया। चित्रकूट के उस गांव में आज भी गोलियों की तड़तड़ाहट गूंजती है। इलाके के लोग उस खौफनाक मंजर याद कर सहम जाते हैं। एक ऐसी भीषण मुठभेड़ की कहानी जिसका लाइव टेलिकास्ट दुनिया ने घरों में टीवी सेट पर देखा था। 52 घंटे तक चली मुठभेड़ में पुलिस के 4 जवान शहीद हो गए थे, जबकि 6 अन्य घायल हो गए थे। केवट ने अकेले ही आईजी और डीआईजी लेवल के अधिकारियों से लेकर 4 जनपद की फोर्स और एसटीएफ के पसीने छुड़ा दिए।
चित्रकूट के राजापुर थाने के जमौली गांव में 16 जून 2009 को डकैत घनश्याम केवट के साथ यह मुठभेड़ हुई थी। 19 जून को खत्म हुई इस मुठभेड़ में सरकार के 52 लाख रुपये खर्च हुए। 50 हजार के डकैत घनश्याम केवट की मौजूदगी की इनपुट पर दिन में 11 बजे पुलिस जमौली गांव में दाखिल हुई। मकान को घेर लिया गया और केवट को सरेंडर करने को बोला। अगले डेढ़- दो घंटे तक सन्नाटा छाया रहा। आखिर में घनश्याम ने पुलिस के इरादे को भांपते हुए फायर कर दिया। इसके बाद दोनों तरफ से दनादन गोलियां चलने लगीं।
पुलिस पहले तो कुछ थानों की फोर्स लेकर पहुंची लेकिन घनश्याम के साथ मुठभेड़ लंबा खिंचने की स्थिति में अगले दिन चित्रकूट के साथ ही कौशांबी, हमीरपुर और बांदा जिलों से अतिरिक्त फोर्स बुलाई गई। इतना ही नहीं स्पेशल टास्क फोर्स को भी इस काम में लगाया गया। लेकिन घनश्याम केवट हथियार डालने को तैयार नहीं था। गांव के एकमात्र पक्के घर के ऊपरी कमरे में पोजिशन लेकर घनश्याम ऐसी जगह पर था, जहां से गांव का हर कोना उसकी निगाहों में था। वह रुक-रुककर खाकी पर गोलियां बरसाता रहा।
बैकफुट पर नजर आ रही खाकी ने गांव में आग लगाने का फैसला किया। उम्मीद की जा रही थी कि घनश्याम केवट के अगल-बगल छप्परों में आग लगने से वह बाहर आएगा ही। लेकिन 6 घंटे तक आग बुझकर शांत भी हो गई लेकिन वह बाहर नहीं निकला। इस बीच PAC कमांडर बेनी माधव सिंह, SOG सिपाही शमीम इकबाल और वीर सिंह सहित 4 जवान शहीद हो गए। इसके साथ ही तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक (PAC) वी.के. गुप्ता और उपमहानिरीक्षक सुशील कुमार सिंह सहित 6 पुलिसकर्मी भी घायल हो गए।
एक आदमी .315 बोर की फैक्ट्री मेड राइफल और कारतूसों के साथ ही कमरे में रखे पानी को पीकर पुलिस बल पर भारी पड़ रहा था। हाल ऐसा हो गया कि यह एनकाउंटर देशभर में चर्चा का विषय बन गया। उस समय के एडीजी बृजलाल, आईजी जोन इलाहाबाद सूर्य कुमार शुक्ला भी मुठभेड़ वाले गांव में पहुंच गए। बेचैनी लखनऊ तक थी, जहां तत्कालीन DGP विक्रम सिंह फोन के जरिए लगातार दिशानिर्देश दे रहे थे और अपडेट ले रहे थे।
परिवार की एक लड़की के साथ छेड़खानी की घटना के बाद बंदूक उठाने वाले घनश्याम की इस मुठभेड़ का अंत समय भी आ गया। गिनी-चुनी गोलियां ही घनश्याम के पास बची थीं। दिन ढलने के वक्त उसने निकलकर भागने की योजना बनाई। छत पर चढ़कर लंबी छलांग लगाकर वह पीछे खाली जंगल की तरफ भागा। हालांकि पुलिस ने चारों तरफ मोर्चेबंदी लगा रखी थी। गोलियां चलनी शुरू हो गई। और कुछ देर बाद जब जाकर देखा गया तो गोलियों से छलनी घनश्याम केवट का मृत शरीर वहां पड़ा हुआ था।
इस मुठभेड़ के दौरान उड़ी बारुदें आज भी वहां की फिजाओं में दर्ज हैं... बीहड़ के बागियों में भी... और पुलिस महकमे के इतिहास में भी।