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UP में 'शुभकामनाओं' तक ही क्यों सीमित रहा विपक्ष? भारत जोड़ो यात्रा से दूरी का समझिए कारण

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा यूपी की सीमा से निकल कर हरियाणा में दाखिल हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में तीन दिनों की यात्रा को लेकर हलचल पैदा हुई। पश्चिमी यूपी में निकल रही यात्रा को लेकर लखनऊ तक हलचल देखी गई। लेकिन, विपक्ष इस यात्रा में हिस्सेदार बनने की जगह खुद को अलग रखा।

UP में 'शुभकामनाओं' तक ही क्यों सीमित रहा विपक्ष? भारत जोड़ो यात्रा से दूरी का समझिए कारण

वर्ष 2014 के बाद पूरे देश में विपक्ष मोदी के विजय रथ को रोकने की कोशिश में जुटा हुआ है। इसके लिए सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो जो भी प्रयोग हो सकते थे, विपक्ष कर भी चुका है। 2017 में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा। 2019 में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने करीब दो दशक पुरानी अपनी 'दुश्मनी' भुलाते हुए हाथ मिलाया और 2022 में अखिलेश यादव ने चौधरी जयंत सिंह सहित जितने भी प्रभावशाली छोटे दल थे, उन्हें अपने पाले में कर बीजेपी को चुनौती दी। लेकिन ये सारे प्रयोग विफल हो गए। बीजेपी हर चुनाव में मजबूत होकर उभरती गई। यूपी में तो बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में नया रेकॉर्ड भी बना दिया कि पांच साल सत्ता में रहने के बाद लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए भी सत्ता में आ गई।

अब जबकि 2024 के चुनाव की आहट सुनाई पड़ने लगी है और राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर गैर बीजेपी मतदाताओं को गोलबंद करने की कोशिश में हैं, तो यह उम्मीद की जा रही थी कि हो सकता है इसी बहाने यूपी में विपक्ष की एकजुटता कायम हो जाए। राहुल गांधी की यात्रा को यूपी के विपक्ष से समर्थन मिलने की संभावना का एक पक्ष यह भी था कि कांग्रेस वह पार्टी है, जिससे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने कभी न कभी किसी न किसी चुनाव में गठबंधन किया हुआ है। यानी कहीं न कहीं इन सबके बीच संवाद का रिश्ता रहा है। शायद इसी बुनियाद पर कांग्रेस की तरफ से इन नेताओं को 'भारत जोड़ो यात्रा' में शामिल होने का न्योता भी भेजा गया था। राजनीतिक गलियारों में इस न्योते पर जवाब को लेकर काफी जिज्ञासा थी।

साथ न आने की वजह
यूपी की राजनीति के तीनों बड़े चेहरों- अखिलेश यादव, मायावती और चौधरी जयंत सिंह ने भारत जोड़ो यात्रा से अपना रिश्ता शुभकामनाओं तक ही सीमित रखा। अखिलेश यादव ने राहुल को भेजे पत्र में कहा, 'भारत जोड़ो यात्रा में आमंत्रण के लिए धन्यवाद, मुहिम की सफलता के लिए शुभकामनाएं। भारत भौगोलिक विस्तार से अधिक एक भाव है, जिसमें प्रेम, अहिंसा, करुणा और सौहार्द ही वे सकारात्मक तत्व हैं, जो भारत को जोड़ते हैं। आशा है ये यात्रा हमारे देश की इसी समावेशी संस्कृति के संरक्षण के उद्देश्य से अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगी।'

मायावती ने ट्वीट किया, 'भारत जोड़ो यात्रा' के लिए शुभकामनाएं और राहुल गांधी द्वारा इस यात्रा में शामिल होने की लिखी गई चिट्ठी के लिए उनका धन्यवाद।' जयंत चौधरी ने भी खुद को शुभकामनाओं तक ही सीमित रखा, 'भारत जोड़ो के तपस्वियों को सलाम! देश के संस्कार के साथ जुड़ कर उत्तर प्रदेश में भी चल रहा यह अभियान सार्थक हो और एक सूत्र में लोगों को जोड़ता रहे!' ऐसा करना इन राजनीतिक दलों की मजबूरी भी कही जाती है।

दरअसल, यूपी में इन राजनीतिक दलों ने अपनी जो सियासी जमीन तैयार की है, वह कांग्रेस के कमजोर होने की सूरत में ही तैयार हुई है। नब्बे के दशक में मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर में कांग्रेस हाशिए पर चली गई। कांग्रेस की मजबूती का जो आधार था वह ब्राह्मण +मुस्लिम + अनुसूचित जाति वर्ग के समर्थन पर था। 1992 में अयोध्या के घटनाक्रम ने मुसलमानों को कांग्रेस से पूरी तरह अलग कर दिया। मुसलमान वोटरों ने समाजवादी पार्टी के साथ अपना राब्ता कायम कर लिया।

उधर, अनुसूचित जाति वर्ग के मतदाताओं ने बहुजन समाज पार्टी को अपना घर मान लिया और ब्राह्मण मतदाता बीजेपी के साथ हो लिए। इसके बाद यूपी में कांग्रेस चुनाव दर चुनाव हाशिए पर होती गई। और इधर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी यूपी की राजनीति के केंद्र में आ गईं। यूपी में कांग्रेस जब भी मजबूत होगी तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की कीमत पर ही होगी। स्वाभाविक रूप से ये पार्टिंया यूपी में कांग्रेस को मजबूत होते नहीं देखना चाहेंगी।

कांग्रेस से कभी फायदा नहीं
मुलायम सिंह यादव इस सच को बखूबी समझते थे, इसलिए उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी कांग्रेस के साथ गठबंधन पर अपनी हामी नहीं भरी और न ही उन्होंने कांग्रेस को कभी मजबूत होने का मौका दिया। 2017 के विधानसभा चुनाव के वक्त जब यादव परिवार में नेतृत्व के सवाल पर पाला खिंच गया था और पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथ आ गई थी, तब अखिलेश ने कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया था। लेकिन उससे मुलायम सिंह यादव कतई सहमत नहीं थे। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि अखिलेश का यह फैसला पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।

इस गठबंधन से कांग्रेस तो मजबूत नहीं हो पाई लेकिन समाजवादी पार्टी ने चुनावी नतीजों का जो आंकलन किया, उसमें पाया था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन से उसे फायदा होने के बजाय नुकसान हुआ। कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने की स्थिति में अपर कास्ट का जो वोट कांग्रेस ले जाती थी, उससे बीजेपी को नुकसान होता था। गठबंधन की स्थिति में यह वोट बीजेपी को पूरी तौर पर शिफ्ट हो गया था। इसी वजह से समाजवादी पार्टी ने अगले किसी चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन नहीं करना चाहा। 1996 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा था।

कांग्रेस का इस चुनाव में वोट प्रतिशत भी बढ़ा और सीट भी लेकिन बहुजन समाज पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ। इसके बाद बहुजन समाज पार्टी ने भी अपना रिश्ता खत्म कर दिया था। राष्ट्रीय लोकदल के साथ भी यही हुआ। ऐसे में इन दलों को लगता है कि कांग्रेस से उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला। लेकिन अगर कांग्रेस मजबूत हो गई तो उनका नुकसान जरूर हो जाएगा।

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