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क्यों कहते थे 'मुल्ला मुलायम' और इस छवि से नेताजी को क्यों नहीं हुआ नुकसान? अयोध्या की वो कहानी

आज सैफई उदास है। 'नेताजी' के नाम से मशहूर मुलायम सिंह यादव का आज दोपहर में अंतिम संस्कार किया जाएगा। कई दिग्गज सैफई पहुंच रहे हैं। मुलायम के साथ ही यूपी की सियासत का एक बड़ा अध्याय भी समाप्त हो रहा है। उनका MY समीकरण काफी चर्चा में रहा और उन्हें 'मुल्ला मुलायम' भी कहा गया। इसकी एक कहानी है।

क्यों कहते थे 'मुल्ला मुलायम' और इस छवि से नेताजी को क्यों नहीं हुआ नुकसान? अयोध्या की वो कहानी

6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी मुसलमानों की 'रक्षक' बनकर उभरी। अब तक कांग्रेस पार्टी इस भूमिका में समझी जाती थी लेकिन केंद्र में उसकी सरकार 16वीं शताब्दी में बनी अयोध्या मस्जिद को सुरक्षा दे पाने नाकाम रही थी। आगे चलकर सैफई के इस 'पहलवान' को 'मुल्ला मुलायम' कहा गया। हालांकि इससे दो साल पहले जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के आह्वान पर सैकड़ों की संख्या में कार सेवक अयोध्या की ओर बढ़ रहे थे तब मुलायम ने दावा किया था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। उन्होंने इसका पालन करते हुए अयोध्या में कारसेवकों पर फायरिंग का पुलिस को आदेश दे दिया। इसमें 28 लोगों की मौत हो गई थी।

1989-90 का वो दौर
साल 1990 का वो अक्टूबर का महीना था। मंडल और कमंडल की राजनीति चरम पर थी। 1989 में भाजपा के सहयोग से जनता दल कैंडिडेट के रूप में मुलायम पहली बार यूपी के सीएम बने थे। हालांकि भगवा दल के साथ संबंधों में उस वक्त खटास आ गई जब केंद्र में जनता दल की अगुआई वाली सरकार चला रहे पीएम वीपी सिंह ने ओबीसी को 27 प्रतिशत नौकरियों में आरक्षण वाली मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू कर दी।

केंद्र की वीपी सिंह सरकार को सपोर्ट कर रहे आरएसएस और भाजपा ने इसे हिंदुओं को बांटने की चाल माना। विशेषरूप से उत्तर और पश्चिम भारत की जनता को अपने साथ करने के लिए भाजपा ने धार्मिक कार्ड खेला और राम मंदिर अभियान के रथ पर सवार हो गई।

लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथ यात्रा निकालने का ऐलान कर दिया। हजारों की संख्या में कारसेवक उनका स्वागत करने के लिए अयोध्या की ओर बढ़ने लगे। वे मंदिर के लिए कार सेवा करना चाहते थे। बाबरी स्थल पर कार सेवा के लिए 30 अक्टूबर 1990 की तारीख तय की गई।

हालांकि आडवाणी की यात्रा को एक और यादव क्षत्रप लालू प्रसाद यादव ने बिहार में ही रोक दिया। इधर, कारसेवकों का अयोध्या आना जारी रहा। राम नगरी किले में तब्दील हो गई। जैसे ही कारसेवक अयोध्या पहुंचे, सुरक्षाकर्मियों के साथ उनकी झड़प शुरू हो गई थी। 30 अक्टूबर की दोपहर में, मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने बेकाबू हो रहे कारसेवकों पर फायरिंग का आदेश दे दिया। आधिकारिक रेकॉर्ड के मुताबिक 30 अक्टूबर और फिर 2 नवंबर को पुलिस की फायरिंग में 28 कारसेवक मारे गए थे। कुछ दावे 50 लोगों की मौत के भी किए जाते हैं।

इस ऐक्शन के बाद मुलायम सिंह सेक्युलरिज्म के चैंपियन बनकर सामने आए, जिसने बाबरी मस्जिद की रक्षा की। इसके बाद से उन्हें 'मुल्ला मुलायम' उपनाम से पुकारा जाने लगा। उनकी छवि मुसलमानों में तब भी बरकरार रही जब दो साल बाद मस्जिद ढही और उस समय वह सीएम भी नहीं थे।

मुलायम ने दिया जवाब
2010 के दशक में बदलते सामाजिक राजनीतिक परिवेश में उन्होंने कई मौकों पर अपने उस ऐक्शन को उचित ठहराने की कोशिश की। 2017 में अपने 79वें जन्मदिन समारोह के दौरान मुलायम ने कहा था कि कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देना कष्टकारी फैसला था लेकिन देशहित में यह लेना पड़ा।

मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में (1989-91) मुलायम की सीधी प्रतिस्पर्धा पीएम वीपी सिंह से थी और वह मुसलमानों के सबसे लोकप्रिय नेता बनकर उभरे। धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों में भी उनकी अलग छवि बनी। वीपी सिंह ने पैगंबर की जयंती को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया और कहा कि आडवाणी को गिरफ्तार करने के मुलायम के प्लान से प्रोत्साहित होकर लालू ने यूपी में प्रवेश करने से पहले ही ऐसा कर दिया।

फायदा भाजपा को मिला
1991 के चुनावों में भाजपा की सफलता का एक सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर कारसेवकों पर फायरिंग की घटना थी और पार्टी राज्य में एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरी। शुरुआत में, मुलायम को इस कदम की भारी कीमत चुकानी पड़ी। 1991 के लोकसभा चुनावों में , जनता पार्टी केवल चार सीटें ही जीत सकी और विधानसभा में भी उसका आंकड़ा 34 पर आ गया।

हालांकि मुलायम सेक्युलरिज्म के अपने रुख पर कायम रहे और यूपी में मुसलमानों के जबर्दस्त सपोर्ट के दम पर वह राज्य और दिल्ली में एक महत्वपूर्ण भूमिका में पहुंचे। मुस्लिम समुदाय उनका वफादार बना रहा। 1992 में अपनी समाजवादी पार्टी बनाने के बाद उन्हें चुनाव दर चुनाव सफलता मिलती गई। यहां तक कि उनके बेटे अखिलेश यादव को भी इस समुदाय ने हाथोंहाथ लिया। 2022 के यूपी चुनावों में भी जब समाजवादी पार्टी लगातार दूसरी बार हारी, उसे मुस्लिम वोटरों का जबर्दस्त सपोर्ट मिला।

हां, 2009 के लोकसभा चुनावों के समय जब मुलायम बाबरी विध्वंस के 'विलेन' समझे जाने वाले कल्याण सिंह के करीब गए, तो समुदाय नाराज हुआ था। इसका कुछ फायदा कांग्रेस को हुआ।

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